देश की आज़ादी की 72 वें वर्ष में प्रवेश करते हुऐ मुसलमानों की दिशा पर दशा पर निगाह डालते हैं तो एक शब्द ज़हन में उभरता है “कठमुल्ला” । “कठमुल्ला” शब्द सुनते ही अधिकांश मस्तिष्क में एक छवि उभरती है – गोल टोपी वाले, लम्बी दाढ़ी बग़ैर मूंछ वाले, लम्बे कुर्ते और छोटे पाजामे वाले कट्टर व्यक्तित्व की।
जो हिंसक है, मांसाहारी है, “हम पांच, हमारे पच्चीस” पर यक़ीन रखता है। जिसे अपने मज़हब के अलावा किसी अन्य मज़हब और उसके मानने वालों से नफरत है। वह उन्हें मारकर जन्नत में हूरों का तमन्नाई है। हिन्दू युवतियां देखते ही उसके मुंह से राल टपकने लगती है। उसे अपने मुल्क से मोहब्बत नहीं। वो देशद्रोही है। उसने देश के लगभग सभी मंदिरों की मूर्तियां तोड़ी हैं, वो भी जो मौसम की मार से अथवा किन्हीं अन्य कारणों से क्षतिग्रस्त हो गईं हों और इसके आगे पता नहीं क्या-क्या…………???
यह दुष्प्रचार कर कौन रहा है? जिनका, जिनके पूर्वजों का, जिनके संगठन का जंगे आज़ादी में कोई योगदान नहीं।
अब सवाल उठता है क्या यह सही है? क्या होता है कठमुल्लापन? क्या होता है ‘मुसलमानपन’ ?
वरिष्ठ पत्रकार, बी.बी.सी, जनाब नासिरुद्दीन साहब के बड़ी साफगोई से लिखे एक लेख से प्रेरणा लेते हुऐ उनकी बात को ही आगे बढ़ाता हूं ,” क्या इस ज़मीन पर रहने वाले सभी हिन्दू एक जैसे हैं? अगर ऐसा है तो मुसलमानपन और कठमुल्लेपन की तलाश वाक़ई ज़रूरी है?
कहानी बुनी गई है कि दुनिया की हर मुसीबत की जड़ में मुसलमान हैं। उनकी निशानदेही हो सके इसलिए अफ़्रीका से लेकर चीन तक उन्हें एक ख़ास पहचान में समेटने की कोशिश की जा रही है।
इसके बरअक्स, मुल्क भर के हिन्दू न दिखते एक जैसे हैं, न खाते एक जैसा हैं और न पहनते एक जैसा हैं. ठीक वैसे ही दुनिया भर के मुसलमान न एक जैसे देखने में हैं न पहनने में, न खाने में और बोल-चाल और रस्मोरिवाज में भी नहीं। नाम से भी जुदा-जुदा हैं। मगर क्या हम इसे अपनी नज़र से देखने को तैयार हैं? या अपनी आँख बंद कर दूसरों की नज़र से देखेंगे?
मुसलमान न जाने कब से इस मुल्क में अफ़वाह की तरह बनाए जा रहे हैं. अफ़वाह की पुड़िया सालों से खिलाई जा रही है और दिमाग़ की नफ़रती नसों को सेहतमंद बनाया जा रहा है।
कांग्रेस के शासनकाल में ही गुजरात एक अन्य प्रकार के कठमुल्लापन की प्रयोगशाला बनता रहा और कांग्रेस न सिर्फ मौन रही बल्कि मुसलमानों को डराने और वोटों की सियासत के लिये हिन्दू कठमुल्लेपन को संरक्षण देती हुई भी नज़र आई। नतीजतन संविधान की आत्मा, धर्मनिरपेक्षता कमज़ोर होने लगी। उसका उपहास उड़ाया जाने लगा। सर्व धर्म – समभाव पर सवालिया निशान लगने लगे। संविधान की मूल आत्मा को ही नकारने की हिम्मत एक संगठन के संरक्षण में कुछ लोगों में आ गई।
मुसलमानों को कट्टर बताया जाने लगा, कुछ होते होंगे? मगर यह कैसे हो रहा है, गाय बचाने के नाम पर वे मार दिए जा रहे हैं? टोपी पहनने की वजह से वे जान गँवा रहे हैं? खाने के नाम पर उनके साथ नफ़रत की जा रही है? क्या हमारे हिन्दू भाई मांसाहारी नहीं?
गौरक्षा आस्था नहीं आतंक का प्रतीक कैसे और कब बन गई, हम समझ ही न सके?
गौ-रक्षक दल कभी बड़े आधुनिक बूचड़ख़ानों पर हमला क्यों नहीं बोलते? उन्हें बंद कराने की मुहिम क्यों नहीं छेड़ते। केन्द्र और राज्य की गौरक्षक सरकारें इन बड़े स्लोटर हाउसेस के लाइसेंस रद्द क्यों नहीं करती? जिनके 80% से ज़्यादा मालिक राष्ट्रवादी हिन्दू हैं और राष्ट्रवादी पार्टी को ही चन्दे की मोटी रक़म देते हैं? देश “बीफ एक्सपोर्ट” में शीर्ष पर क्या मोदीजी के शासनकाल में नहीं पहुंचा? अभी हाल में ही बजरंग दल का एक नेता बड़े स्लोटर हाउस के लिये गौवंश ले जाता हूआ पकड़ा गया। फिर यह कैसी गौरक्षा?
मुसलमानों के बारे में यह बताया जारहा है कि वे ‘हम पाँच और हमारे पच्चीस’ पर यक़ीन करते हैं।
मगर क्यों हम सब तीन-चार बीवियों वाले किसी मर्दाना मुसलमान पड़ोसी के बारे में आज तक जान नहीं पाए? किसी ने आज तक अपार्टमेंट या मोहल्ले में रहने वाले किसी मुसलमान पड़ोसी के 25 बच्चे गिने? पूरे हिंदुस्तान में गहन छानबीन के बाद आप एक परिवार भी ऐसा नहीं पता पायेंगे जो ‘हम पाँच और हमारे पच्चीस’ अर्थात एक पति,चार पत्नी और हर पत्नी के कम से कम छ: बच्चे । फिर आदरणीय नरेंद्र मोदी जी ने यह बेबुनियाद जुमला उछाल कर देश की जनता को कौन सी मोहब्बत का संदेश दिया?
कहते हैं, उनका सालों से ‘तुष्टीकरण’ हुआ। यानी उन्हें सरकारों की तरफ़ से सबसे ज्य़ादा सुख-सुविधा-सहूलियत मिलती है। उनको दामाद की तरह इस मुल्क में रखा जाता है… है न… ऐसा ही है क्या?
पर सवाल है इसके बावजूद वे ‘सबका साथ, सबका विकास’ में सबसे निचले पायदान पर क्यों हैं? दरअसल, वे तो सच्चर समिति, रंगनाथ मिश्र आयोग, कुंडू समिति के दस्तावेजों में दर्ज ‘विकास’ की हकीक़त हैं। अब प्रश्न यह है कि यह तुष्टिकरण है या शोषण?
उन्हें भूख लगती है, इसलिए राशन-केरोसीन चाहिए। तालीम, रोज़गार और छत चाहिए। नाम को ही सही धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है तो ज़ाहिर है, नुमाइंदगी चाहिए। उनके पिछड़े मोहल्लों को स्कूल, सड़क और घरों को बिजली-पानी चाहिए।
वे भी पसंद करते हैं सतरंगी दुनिया, वे टोपी वाले हैं, बिना टोपी वाले हैं, गोल टोपी वाले हैं, तो रामपुरी वाले भी हैं। दाढ़ी वाले हैं तो बिना दाढ़ी वाले भी हैं। बुर्क़ेवालियाँ हैं तो असंख्य बिना बुर्क़ेवालियाँ भी हैं। उन्हें सिर्फ़ हरा रंग ही पसंद नहीं है, वे सतरंगी दुनिया के मुरीद हैं।
और तो और… मुसलमान लड़कियों को सिर्फ़ सलमा-सितारा से सजा ग़रारा-शरारा पसंद नहीं है। वे शलवार भी पहनती हैं और जींस भी, साड़ी भी पहनती हैं और पैंट भी। वे सिर्फ़ लखनवी, भोपाली और हैदराबादी अंदाज़ में आदाब अर्ज़ करती कोई बेगम/ख़ातून नहीं हैं बल्कि हाथ जोड़कर नमस्ते से अभिवादन भी करती हैं।
वे आँचल को परचम बना कर मोर्चा संभालती हैं। खेतों में काम करने वाली मेहनतकश हैं तो दुनिया के स्टेज पर झंडे लहराती दिमाग़ भी हैं। तक़रीबन हर क्षेत्र में वो उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। इसलिए, मुसलमान स्त्रियों का मुद्दा सिर्फ़ तलाक़, हलाला, बहुविवाह या शरिया अदालत क़तई नहीं है। उन्हें भी आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई और रोज़गार की ज़रूरत है। घर के अंदर और बाहर हिंसा से आज़ाद माहौल की ज़रूरत है।
यहां यह स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि एक बार में तीन तलाक़ मुसलमानों के 73 फिरक़ो में से सिर्फ़ एक फ़िरक़े में रायज है। उसमें भी मुश्किल से 1% से भी कम महिलाएं इससे पीड़ित हों, लेकिन उस फ़िरक़े ने भी अदालत का फैसला सहर्ष स्वीकार किया। फिर भी इस पर सियासत जारी है, अफवाहों के ज़रिए माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जैसे कि मुस्लिम महिलाओं का बहुमत इस समस्या से पीड़ित है।
इन मुस्लिम महिलाओं से कई गुना ज़्यादा संख्या उन महिलाओं और उनसे पैदा बच्चों की है, जो गुमनामी के अंधेरे में गुम हैं। जिन्हें पति और पिता का नाम सार्वजनिक रूप से सिर्फ़ इसलिए नहीं मिलता कि वे पति की दूसरी बीबी और उससे पैदा बच्चे हैं। वे पत्नी नहीं, …….. कहलाती हैं। उच्चतम न्यायालय तक जाकर कितने बच्चे, डी.एन.ए. टेस्ट के बाद, पिता का नाम पा सकते हैं और मां की मांग में सिंदूर भरवा सकते हैं? कोई महिला संगठन इनकी आवाज़ बुलंद क्यों नहीं करता? महिला हितैषी यह सरकार इनको इनका हक़ क्यों नहीं दिला रही? क्या यह उन महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार नहीं? फिर तथाकथित राष्ट्रवादी व्यक्ति, संगठन और सरकार इनके कल्याण के लिए कार्य क्यों नहीं कर रहे? क्या यह भी एक प्रकार का कठमुल्लापन नहीं?
मुसलमानों में अगर दूसरी बीवी है तो बीवी है,…….नहीं। उसका सामाजिक सम्मान है। उसे पति का और उसके बच्चों को बाप का नाम भी मिलेगा और विरासत भी।
यही नहीं, ये तो ईद-बक़रीद में भी काबुली चने के छोले भी खाते हैं और दही बड़े, मटर की चाट , आलू की टिकिया और पनीर पकौड़ा भी बनाते हैं। वे सिर्फ माँसाहारी नहीं हैं। सब्ज़ी भी खाते हैं। कई तो शुद्ध वैष्णव होटल वाले हैं। हींग की छौंक के मुरीद हैं।
तरह-तरह के मुसलमान हैं। ठीक वैसे ही जैसे दूसरे मज़हब में होते हैं, कुछ मज़हबी हैं तो कुछ सिर्फ़ पैदाइशी मुसलमान। कुछ सांस्कृतिक मुसलमान हैं तो ऐसे भी हैं जो ख़िदमते ख़ल्क़ को ही इबादत मानते हैं।
उनके लड़के ही मोहब्बत में ग़ैर मज़हब में शादियाँ नहीं करते लड़कियाँ भी करती हैं। इसलिए उनकी रिश्तेदारियाँ भी दूसरे मज़हब के मानने वालों में हैं।
वे सबके साथ हैं, मगर उनके साथ कौन है, ये वे समझने की कोशिश में जुटे रहते हैं। वे सिर्फ़ मदरसों में नहीं पढ़ते, वे सिर्फ़ मज़हबी आलिम नहीं हैं। वे मज़दूर हैं, दस्तकार हैं, कलाकार हैं, पत्रकार हैं, लेखक हैं, शायर हैं, गायक हैं, फ़ौजी हैं। सिविल सेवा में हैं, डॉक्टर-इंजीनियर हैं, वैज्ञानिक हैं, खिलाड़ी हैं और तो और ये सब मर्द ही नहीं हैं, स्त्री भी हैं… सवाल है, वे क्या-क्या नहीं हैं?
आतंकवाद से पीड़ित एक कश्मीरी परिवार का लड़का शाह फैसल सिविल सर्विसेज़ में टोप करता है उसका समाचार सातवें पेज पर आधे से भी कम कालम में प्रकाशित होता है, जबकि उसी दिन क़साब को फांसी दिये जाने की ख़बर मुख्य पृष्ठ पर कई कालम में जगह पाती है। यह भी कठमुल्लेपन का एक उदाहरण नहीं है?
बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की शहनाई, अमजद खां – सरोद वादक, ज़ाकिर हुसेन – तबला वादक आदि का सानी दुनिया आज भी पैदा नहीं कर सकी। “मन तड़पत हरि दर्शन को” जैसा अर्थपूर्ण भजन दोबारा नहीं लिखा जा सका। इसका लेखक -शकील बदायूँवनी, संगीतकार-नौशाद, गायक – मोहम्मद रफी। आज का आधुनिक नौजवान भी सुने तो भक्ति भाव में सराबोर होने को मजबूर हो जायेगा। यही तो है धर्मनिरपेक्षता – जिसका उपहास तथाकथित राष्ट्रवादी ज़ोर शोर से उड़ा रहे हैं।
हिन्दू कठमुल्लेपन ने बड़ी चालाकी से राष्ट्रवाद का चोला ओढ़ा और बताया मुसलमान मतलब- इफ, बट, किन्तु, परन्तु, लेकिन… और उन्हें एक बड़ा लेकिन बना दिया। इसलिए पहले मुसलमान अफ़वाह बनाए गए, सिर्फ़ और सिर्फ़ मज़हबी अफ़वाह। उनकी हर पहचान पर सिर्फ़ एक पहचान ओढ़ा दी गई- मज़हबी पहचान। इसीलिए पूर्व राष्ट्रपति वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भी ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ हो गए।
हिन्दू कठमुल्ले मज़हबी पहचान को अफ़वाह में बदलना चाहते हैं। इसलिए उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ याद रहता है- किसी शख़्स का मज़हब. क्योंकि वे बदल देना चाहते हैं, ढेर सारी पहचानों को एक पहचानने लायक आसान पहचान में। यानी, मुसलमान, टोपी, बुर्का, उटंगा पैजामा, हरा रंग , पाकिस्तान, आई एस आई एस, तालिबान, आतंकी…..आदि आदि।
वे सब पहचानों को समेट कर एक कर देना चाहते हैं, क्योंकि, मज़हब उनकी सियासत है। आस्था कुछ और है।
इसीलिए वे ख़ास मुसलमानपन लादना चाहते हैं और इस अनोखी मुसलमानपन की खोज की बुनियाद में कठमुल्ले हिन्दूपन की नफ़रत है, झूठ है, सामूहिक हिंसा है। यही वजह है कि ढेर सारी पहचानों के बावजूद इस मुल्क के ढेर सारे मुसलमानों पर महज एक पहचान का लबादा ओढ़ा दिया गया है। वे चाहें न चाहें, ज़रूरत, बेज़रूरत वे इस समाज में महज़ मज़हबी शिनाख़्ती कार्ड होते जा रहे हैं।
हाँ, सच है, कई जगहों में वे अपनी आबादी के लिहाज़ से बहुत कम हैं। वे ग़ैरबराबरियों का चेहरा हैं। इनमें कुछ बदमाश, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, धोखेबाज़, गुंडे, मवाली, अय्याश, जुआरी, सट्टेबाज, शराबी, नशेड़ी और देशद्रोही भी हैं ,पर सवाल तो यह है, कहाँ नहीं हैं यह? इन्हें धर्म से न पहचानिये, इन पर निष्पक्ष कठोर त्वरित क़ानूनी कार्यवाही होने दीजिए, किसने रोका है?
इसीलिए धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान में सब जगह तो नहीं मगर मुल्क के कई हिस्सों में वे नफ़रत का निशाना बने हुए हैं। मगर बाक़ी भी तो डरे हैं।
महज़ अपनी ख़ास पहचान की वजह से कई जगह उन्हें रहने को किराये के मकान नहीं मिलते, बिल्डर उन्हें मकान नहीं बेचते, वे कई इलाक़ों में डर कर रहते हैं। डर कर सफर करते हैं। डर-डर कर बोलते हैं, बोलते हैं, सोचते हैं, सोचते हैं, फिर बोलते हैं। लिखा मिटाते हैं, फिर लिखते हैं, फिर मिटाते हैं, फिर लिखते हैं।
वे सिर्फ़ अपनी मज़हबी शिनाख़्ती कार्ड की वजह से कई इलाकों में मारे जा रहे हैं। कई जगहों पर मुसलमान स्त्रियों की देह धर्म विजय का मैदान बना दी जा रही है। उन्हें पराया बताया और माना जा रहा है। रोटी-बेटी के रिश्ते को बनने नहीं दिया जा रहा है। जो बने हैं, उन्हें लव-जिहाद के नाम पर ज़बरदस्ती तोड़ा जा रहा।
वो गा रहे हैं, “हम बुलबुलें हैं इसकी… यह गुलसितां हमारा।“
नफरत, झूठ, हिंसा, यह सब हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है। कहीं कम तो कहीं ज़्यादा। कहीं खुलकर तो कहीं पर्दे में। कहीं सड़क पर तो कहीं न्यूज़ चैनलों के स्टूडियो में। ऑनलाइन और ऑफलाइन भी।
मगर वे फिर भी गा रहे हैं…
“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा।“
उनमें से ज़्यादातर सतरंगी गुलसिताँ में रहना चाहते हैं, मगर उन्हें एक रंग में बदलने की कोशिश तेज़ से और तेज़ होती जा रही है। सिर्फ़ इसलिए कि उनके कंधे पर बंदूक़ रखकर देश के तिरंगे को अपने मनपसंद एक रंगे रंग में रंगा जा सके।
ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे पूरी दुनिया में जो कुछ गड़बड़ हो रहा है, उसकी वजह भारत के मुसलमान ही हैं। उन पर मज़हब के नाम से हमला किया जा रहा है। वे बेचैन हैं और छटपटाते हैं और तब वे और ज़ोर-ज़ोर से गाने लगते हैं,
“मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा…”
वे बांसुरी के बजैया वाले नज़ीर का नाम लेते हैं। वे बताते हैं कि “सबसे पहले सन 1772 मे शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी ने अंगरेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा दे दिया था और इस जेहाद के फतवे के ज़रिए 85 साल पहले आज़ादी की क्रान्ति की लौ हिन्दुस्तानीयो के दिलों मे जला चुके थे । उन्होंने कहा के अंगरेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो और ये मुसलमानो पर फर्ज़ हो चुका था।“ वे हैदर अली और टीपू सुल्तान की अंग्रेज़ों से जंग याद दिलाते हैं । वे बताते हैं कि “बहादुर शाह ज़फ़र (सन 1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहनशाह थे और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। उन्होंने सन 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। उन्हें उनके दो जवान बच्चों के सिर काट कर भेंट किये गये,मगर वो बहादुर शाह वास्तव में बहादुर थे, वे विचलित नहीं हुये। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई। पहली जंगे आज़ादी के महान स्वतंत्रता सेनानी अल्लामा फज़ले हक़ ख़ेराबादी ने भी दिल्ली की जामा मस्जिद से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ जेहाद का फतवा दिया था । इस फतवे के बाद आपने बहादुर शाह ज़फर के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ मोर्चा खोला और अज़ीम जंगे आज़ादी लड़ी। इसके बाद हज़ारों उलेमाए इकराम को फांसी, सैकड़ों को तोप से उड़ा कर शहीद कर दिया गया था और बहुतसों को काला पानी की सज़ा दी गयी थी। अल्लामा फज़ले हक़ खैराबादी को रंगून में काला पानी में शहादत हासिल हुई।“ वो, अशफ़ाकुल्लाह की शहादत याद कराते हैं। वे, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, रफी अहमद क़िदवई, युसुफ मेहर अली, बेगम हज़रत महल, अज़ीमुल्लाह ख़ान, शहनवाज़ ख़ान और अब्दुल हमीद जैसों को याद कराते हैं।
कबीर, ख़ुसरो, रहीम, रसख़ान, जायसी का नाम बार-बार दोहराते हैं। वे इंक़लाब ज़िंदाबाद वाले हसरत मोहानी का नाम लेते हैं। वे सावित्री बाई की साथी फ़ातिमा शेख़ की याद दिलाते हैं। स्त्रियों को अपनी बदतर हालत का अहसास दिलाने वाली रूक़ैया का नाम लेते हैं।
वे इस देश की प्रगतिशील साहित्य आंदोलन की अगुआ रशीद जहाँ का नाम बताते हैं। सशक्त महिला अस्मत चुग़ताई की याद दिलाते हैं। वि कहते हैं, साहिब, उन्होंने भी बहुत न भुलने वालें, लेख और कहानियां लिख दी थीं, जो आज भी हमारी आत्मा को उथल पुथल कर डालती हैं, और वे भी अन्दर तक जा कर, बड़ी ज़ालिम मार मारते हूऐ। अपने दौर की सबसे बेबाक और बोल्ड लेखिका अस्मत आपा। इतनी मज़बूत किरदार की समकालीन पुरुषों के पसीने छूट जाये।
किसको भूलूँ, किसे याद करूँ
इतने मोती बिखरे हैं राहों में।।
मगर ये सब अब बहुत काम नहीं आ रहा है। नफ़रत ने अपना काम हिन्दुस्तान की बड़ी आबादी पर मज़बूती से कर दिया है।
पिछले सात दशक की अनथक मेहनत के बाद हिन्दू कठमुल्लापन अपने मिशन में कामयाब होता नज़र आ रहा है। इसीलिए मुसलमान एक ख़ास तबक़े के लिए हमेशा शक के दायरे में रहते हैं। शक और नफ़रत अब बड़ा ख्याल है। शक, नफ़रत, झूठ- दिमाग़ पर क़ब्ज़ा करने का सबसे बड़ा हिंसक खयाल है। वे इस हिंसक कब्ज़े में यक़ीन रखते हैं, इसलिए वे जुटे हैं। इस ख़्याल को अब टेक्नोलॉजी के पंख मिल गए हैं। दिलों के अंदर जमा ग़ुबार बदतरीन शक्ल में यहाँ- वहाँ दिखाई देने लगा है।
कल तक ईद, बक़रीद पर घर आकर दिल से मुबारकबाद देने के बाद “शीर ख़ुरमा” और “शामी कबाब, सीख़ कबाब, नरगिसी कोफ्ता और बिरयानी” शौक से खाने वालो की संख्या अब बहुत घट गई है। फोन पर बधाई या उसकी भी ज़रूरत नहीं, यह धर्मनिरपेक्ष और गंगा जमुनी तहज़ीब के हिन्दुस्तान के अस्तित्व के लिये ख़तरे की घण्टी है और कठमुल्लेपन के बढ़ते प्रभाव का संकेत भी। यह कठमुल्लापन भारतीय मुसलमानों को इनकी ढ़ेर सारे शिनाख़्ती कार्डों के साथ आसानी से ज़िंदा नहीं रहने देना चाहते हैं। वे चाहते हैं, वे वैसी ही जियें, जिस पहचान में यह छद्म राष्ट्रवादी कठमुल्ले जिलाना चाहते हैं।
इसलिए कुछ इधर भी हैं … जो बात करने को भी गुनाह बताते हैं, बात करने से डराते हैं, वे संवाद से डराते हैं, वे चौखट के भीतर ख़ौफ़ का घर बताते हैं, वे खाने का मज़हब बताते हैं। निपटिये इनसे भी।
आतंकवादियों, बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों, बे-ईमानों, मुजरिमों, फ़िरक़ापरस्तों आदि आदि से कोई हमदर्दी नहीं। होने दीजिए इनपर निष्पक्ष कठोर क़ानूनी कार्यवाही।
वे हमारे आस-पास हैं, हमारे घर के अंदर हैं, हमारे अंदर हैं। हमारे दिलोदिमाग़ में भरे नफ़रती ख़्याल में हैं। क्या हम इन्हें पहचान पा रहे हैं? इन्हें भी पहचानिए।
कठमुल्ले गुंडे मॉब लिंचिंग नहीं कर रहे हैं, दरअसल वो उकसा रहे हैं। वो चाहते हैं मुस्लिम समाज प्रतिक्रिया करे। अगर प्रतिक्रिया होगी तब बड़े दंगे होंगे। बड़े दंगे यानी गुजरात जैसा ध्रुवीकरण और उतनी ही लम्बी सरकार।
जब “विकास” चार साल बाद भी चलना तो दूर,बैठने लायक़ न हुआ हो और पालने में बीमार पड़ा हो और काम करने की क्षमता न हो तब यही सुरक्षित रास्ता बचता है। इसका परीक्षण वे कर चुके है। परिणाम सामने हैं, गाँधीनगर से दिल्ली तक सत्ता।
सत्ता चाहिए भले ही उसकी क़ीमत हिन्दुस्तान के दो बड़े समाजों में नफरत की खाई इतनी चौड़ी हो जाये कि उसे पाटा न जा सके। विभिन्न समाज आपस में मिल कर न रह सकें। लाशों के अंबार से होकर भी सत्ता का मार्ग प्रशस्त हो रहा हो तो भी मंज़ूर।
देश की आज़ादी के मुजाहिदों ने क्या ऐसे ही हिन्दुस्तान की कल्पना की थी? जी नहीं, बिलकुल नहीं।
आख़िर कब तक चलेगा यह? जी, ये तब तक चलता रहेगा जब तक कि नफ़रती अफवाह की बुनियाद हिलाई नहीं जाएगी। इसके बिना काम नहीं चलने वाला। कितनी हिलेगी पता नहीं पर कोशिश करने में हर्ज भी नहीं है।
यह मुल्क की सलामती के लिए ज़रूरी है।
ध्यान रहे, ऐसा भी नहीं है कि सभी लोग, नफ़रती दिमाग़ के साथ घूम रहे हैं और डरा रहे हैं। अभी इस मुल्क में बहुत कुछ बचा है।
तो सबसे बड़ा सवाल है- अगर नफ़रत मिटाने के लिए, अफ़वाह की बुनियाद को हिलाना ज़रूरी है तो हिलाईये इसे पर कैसे और कौन हिलाये ?
आईये, देश और समाज हित में, देश को विश्व गुरु बनाने के लिये, देश के संविधान में, गंगा जमुनी तहज़ीब में, सर्वधर्म-समभाव में और धर्मनिरपेक्ष हिन्दुस्तान में विश्वास रखने वाले लोग, बातचीत से, मिलने-जुलने से, संवाद से, घर के चौखट के भीतर आने जाने से, एक-दूसरे को जानने-समझने से, साथ खाने-पीने से अफवाह की इस बुनियाद को न सिर्फ हिलायें बल्कि जड़ से उखाड़ फेंकें।
जी, मगर ये यहीं ख़त्म न हो। ये भी शुरू हो और जहाँ शुरू है, वहाँ बंद न हो।
तो आइए, हम सब बात करें। बात से बात बनेगी, सुलझेगी, मिलने से दिल मिलेंगे, दिल से नफ़रत मिटेगी, मोहब्बत पनपेगी। बिना किसी बिचौलिये के सीधी बात हो।
यही नहीं, बात सबसे हो, सिर्फ़ उनसे नहीं, जो हम जैसे हैं, हमारी विचारधारा के हैं। उनसे भी, जो हम जैसे नहीं हैं, हमारी विचारधारा के नहीं । लेकिन इस इस महान हिन्दुस्तान के बाशिंदे हैं।
क्यों?
क्योंकि अलग-2 मज़हब, ज़ुबान, पहनावा, खानपान, रीतिरवाज, एक दूसरे का सम्मान, अनेकता में एकता हमारे देश को महान बनाती है और दुनिया में इसकी अलग पहचान बनाती है।
आईये सब मिलकर हर प्रकार के कठमुल्लेपन और अफवाह का ख़ात्मा करें और हक़ीक़त की ज़िंदगी जियें। इसी में सबका भला है और इसी में देश और समग्र विकास संभव है जो देश के विश्व गुरु बनने का रास्ता प्रशस्त करता है।
जय हिंद – जय भारत।
(सैयद शहनशाह हैदर आब्दी)
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